Sunday 1 February 2015

पुस्तक समीक्षा - छुटपन के दिन


बचपन में हम चन्दामामा पढ़ा करते थे। पंचतंत्र और हितोपदेश की कहानियां पढ़ा करते थे। वेताल पच्चीसी और सिंहासन बत्तीसी के किस्से पढ़ा करते थे। ये किस्से कहानियां हमें गुदगुदाते, हँसाते और थोड़ा रुलाते भी। मगर इसी हंसी और गुदगुदी में लिपटी होती कोई नसीहत। छुपा होता कोई सन्देश। इन किस्सों की खासियत यह होती के ये इतने दिलचस्प होते कि इन्हें सिर्फ बच्चे ही नहीं बड़े भी बड़े चाव से पढ़ते। और इनमें लिपटी नसीहतें भी इतनी रसीली होतीं कि झट उम्र के सारे फ़ासले पार कर बुज़ुर्गों से बच्चों तक पहुँच जातीं। बस ऐसा ही कि कुछ तुषार उप्रेती की पुस्तक 'द डेज़ ऑफ़ चाइल्डहुड ' (उनकी हिंदी किताब 'छुटपन के दिन' का अंग्रेजी अनुवाद) पढ़ते हुए लगा। लगा कि बचपन में पहुँच कर बालभारती या चन्दामामा हाथ में पकड़ ली हो। नंदन या पराग की महक लपेट ली हो। छोटे छोटे गागर जैसे किस्से और उनमें भरी किसी विशाल सागर जैसी रोचकता। किस्सों की भाषा सरल और पात्रों के नाम भी गज़ब, जैसे पड़ोस के गली-मुहल्लों में खेलने वाले बच्चे। टिल्लू, अप्पू, नम्मो, पप्पी और वैसे ही उन्हें खेल खेल में ज्ञान और नसीहत देने वाले ज्ञान चाचा या दीनू चाचा। एक बेहद देसी परिवेश मगर रोचकता, ज्ञान और नसीहतें जो दुनिया के हर हिस्से में काम आयें। तुषार उप्रेती का यह प्रयास बेहद उम्दा है। एक ऐसे समय में जब बच्चे पीएस 4 या एक्सबॉक्स का रिमोट कंट्रोल हाथों में थामे फौजी टैंकों या मिसाइलों के शोर में गुम हों यह किताब और इसके किस्से बच्चों को बचपन की दुनिया की आबोहवा में लाते हैं, जहाँ सहजता है, सरलता है, सुकून है। हालांकि अंग्रेजी अनुवाद पढ़ते हुए लगा कि आनंद का कुछ हिस्सा कहीं अनुवाद में गुम हो गया, मगर जो बचा वह भी कम न था। यदि आप वाकई कुछ समय के लिए वयस्कता के तनावों से दूर छुटपन के दिनों की सैर पर निकलना चाहते हैं तो यह किताब ज़रूर पढ़ें। और यदि अपने बच्चों को इलेक्ट्रॉनिक गेम्स के शोर से दूर सुकून की आबोहवा में ले जाना चाहते हैं तो उन्हें भी यह किताब ज़रूर पढ़ने को दें.।