‘दिल्ली दरबार’ सत्य व्यास का दूसरा उपन्यास है.
उनके पहले लोकप्रिय उपन्यास ‘बनारस टाकीज़’ से ही मैं सत्य व्यास की भाषा, शैली और
स्टोरी टेलिंग का कायल हो चुका हूँ, इसलिए यह जानने की उत्सुकता अधिक थी कि दिल्ली
दरबार में नया क्या है. वैसे सत्य व्यास की एक ख़ासियत यह भी है कि वे तकरीबन एक सी
बातों को भी कुछ ऐसे अंदाज़ में कह जाते हैं कि हर बार एक नया लुत्फ़ मिलता है.
दिल्ली दरबार में भी कुछ ऐसा ही है कि पहले पन्ने से ही गुदगुदी शुरू हो जाती है और
बात-बात पर बेसाख्ता हँसी फूट पड़ती है, और यह सिलसिला अंत तक जारी रहता है.
खैर उपन्यास की कहानी पर आएँ. हर चैप्टर का
टाइटल ‘साहब बीवी और ग़ुलाम’ फिल्म और उसके गानों से लिया गया है, जिसका वैसे तो कहानी से कोई
सीधा सम्बन्ध नहीं है मगर फिर भी इससे लेखक की एडिशनल क्रिएटिविटी का पता चलता है.
कहानी टाटानगर के राहुल मिश्रा की है जो उनके मित्र मोहित सिंह कह रहे हैं. पहले
ही चैप्टर ‘साहब’ में मोहित के ज़रिये राहुल मिश्रा का जो लुच्चा किरदार लेखक ने
खींचा है वो ज़बर्दस्त है. इस धमाकेदार शुरुआत से ही पाठक कहानी से खुद ही गोंद की तरह
चिपक जाता है.
दूसरे चैप्टर ‘साहिल की तरफ़ कश्ती ले चल’ से राहुल और मोहित का दिल्ली का सफ़र और दिल्ली की कहानी शुरू होती है. दिल्ली तक कश्ती पहुँचने की तो कोई ख़ास कहानी नहीं है, मगर दिल्ली पहुँच कर उसके पल-पल डगमगाने और संभलने की कहानी ही बाकी कहानी है. इस चैप्टर की शुरुआत में सत्य व्यास जिस तरह दिल्ली शहर से वाकिफ़ कराते हैं उससे उनकी मंझी हुई भाषा-शैली का एक और नया और संजीदा नमूना देखने मिलता है.
दूसरे चैप्टर ‘साहिल की तरफ़ कश्ती ले चल’ से राहुल और मोहित का दिल्ली का सफ़र और दिल्ली की कहानी शुरू होती है. दिल्ली तक कश्ती पहुँचने की तो कोई ख़ास कहानी नहीं है, मगर दिल्ली पहुँच कर उसके पल-पल डगमगाने और संभलने की कहानी ही बाकी कहानी है. इस चैप्टर की शुरुआत में सत्य व्यास जिस तरह दिल्ली शहर से वाकिफ़ कराते हैं उससे उनकी मंझी हुई भाषा-शैली का एक और नया और संजीदा नमूना देखने मिलता है.
कहानी में ‘साहब’ राहुल मिश्रा हैं और ‘बीवी’
हैं दिल्ली में उनके मकान मालिक बटुक शर्मा की बिटिया ‘परिधि’. कहानी में एक ग़ुलाम
या नौकर भी है जिसके रहस्यमयी किरदार की हक़ीकत अंत में ही खुलती है. कहानी अच्छी
और कसी हुई है मगर उसमें ऐसी कोई नवीनता नहीं दिखती जो उसे बनारस टाकीज़ से बेहतर
साबित कर सके. कहानी के मोर्चे पर दिल्ली दरबार, बनारस टाकीज़ के मुक़ाबले थोड़ा
निराश करती है.
दिल्ली दरबार में दिल्ली उतनी भी नहीं है जितना
बनारस टाकीज़ में बनारस है, मगर जैसा कि सत्य व्यास खुद कहते हैं कि यह ‘दिल्ली में’
कहानी है, न कि ‘दिल्ली की’ कहानी, इसलिए यह टाइटल जस्टिफाई किया जा सकता है.
किताब की भाषा-शैली उम्दा है, हास्य इतना कूट-कूट कर भरा है कि हर पन्ने से फूट-फूट
कर निकलता है. हालाँकि कहीं कहीं आपको हास्य का स्तर हल्का या सस्ता भी लगे मगर जब
लेखक खुद पर 176 पन्नों का धारावाहिक हास्य परोसने की ज़िम्मेदारी ले तो कहीं-कहीं
ऐसा होना लाज़मी भी है और वाजिब भी. राहुल मिश्रा और मोहित के संवाद लोटपोट करने
वाले हैं और उस पर मोहित के कहे ग़ालिब के अशआरों का राहुल मिश्रण पेट पकड़ने पर
मजबूर कर देता है.
कुल मिलाकर दिल्ली दरबार बेहतरीन किताब है, यदि कहानी
भी किताब के बाकी पहलुओं से बराबर तालमेल रखती तो किताब बेहतरीन से भी आगे बढ़कर हो
सकती थी.
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