Wednesday 15 March 2017

पुस्तक समीक्षा - बनारस टॉकीज़


सत्य व्यास का बहुचर्चित हिंदी उपन्यास 'बनारस टॉकीज़' पढ़ा। सच कहूँ तो इस उपन्यास को लेकर मुझे कई पूर्वाग्रह थे। 'अनअदर स्टूडेंट लाइफ स्टोरी'!!! वही तीन-चार लूज़र टाइप दोस्तों की कहानी!!! कुछ रैगिंग के सीन। कुछ एक्सेन्ट्रिक टीचर। कुछ कार्टूननुमा स्टूडेंट। हॉस्टल और कैंपस में पनपती एक प्रेम कहानी। और इनके इर्द-गिर्द छिड़की हुई कुछ मस्ती, नोक-झोंक और गाली-गलौज। मगर पुस्तक का नाम काफ़ी सुन रखा था। कुछ रिकमेन्डेशन भी थे। सो उपन्यास मैंने पढ़ना शुरू किया, मगर उन्हीं पूर्वाग्रहों के साथ। लेकिन सत्य व्यास की दाद देनी होगी। उन्होंने स्टीरियोटाइप को बरक़रार रखते हुए भी मेरे पूर्वाग्रहों को बखूबी तोड़ा। पुस्तक इन्हीं स्टीरियोटाइप को लेकर आगे बढ़ती है, मगर उन्हीं टकसाली किरदारों और उनके बीच घटते जाने-पहचाने वाकयों के बीच से भी कुछ नया ही डिज़ाइन बुनकर उभरता दिखाई देता है। और खासियत उस डिज़ाइन की कि वह कोई इम्पोर्टेड डिज़ाइनर पोशाक नहीं बल्कि घर के बुने मुलायम ऊनी स्कार्फ़ की शक्ल  में ही ढलता है, मगर जब वह बुन कर सामने आता है तो आखें हैरत से ख़ुद को झिड़कती हैं, पगली ये तेरे सामने ही तो बुन रहा था। कहानी बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी के कैंपस और भगवान दास हॉस्टल में रची है। सत्य व्यास स्वयं बीएचयू के अलम्नस हैं और बीएचयू के परिवेश को उन्होंने बखूबी जिया है। कहानी तीन मित्रों या बी.डी. जीवियों की है, बी.डी जीवी यानि बुद्धिजीवियों को अपमानित करते भगवानदास जीवी। जयवर्धन शर्मा, यानि जयवर्धन जी, अनुराग डे यानि दादा और सूरज यानि बाबा और कहानी के सूत्रधार। किरदार और भी हैं और साथ ही हैं जैसा लाज़मी है, गर्ल्स हॉस्टल की रिहाया और सूरज की गर्लफ्रेंड शिखा जो कहानी के अंत तक हाफ गर्लफ्रेंड की तरह ही पेश आती हैं। कहानी सभी किरदारों को लपेटते आगे बढ़ती है, मस्ती, चुहलबाज़ी, गालीगलौज से होते हुए कुछ रोमांचक रोमांस और एक रूमानी रोमांच तक। उपन्यास पढ़ते हुए कई बार लगता है कि जैसे कहानी मोदी एक्सप्रेस की तरह बढ़ रही हो, घट तो बहुत कुछ रहा है, सीटियां भी खूब मार रही है, मगर भाई जा कहाँ रही है? और यही पुस्तक की खूबी है, बकौल पुस्तक की शुरुवात में ही लिखे इस फ़लसफ़ी कोट, 'हर घटना के पीछे कोई कारण होता है, संभव है यह घटित होते वक्त आपको न दिखे; लेकिन अंततः जब यह सामने आएगा, आप सन्न रह जाएंगे'सत्य व्यास की भाषा और शैली की तारीफ करनी होगी। एक ऐसी शैली जिसमें न तो किसी बौद्धिकता का प्रपंच है, और न ही किसी फ़िल्मी फॉर्मूले की बुनावट। बस जैसे का तैसा, बिलकुल भदेसी अंदाज़, जैसे कि अमृतलाल नागर जी का 'सेठ बांकेमल' पढ़ रहे हों। और बीएचयू के जिस परिवेश में कहानी रची गई है उसमें यह अंदाज़ फिट भी खूब बैठता है। मगर एक बात पुस्तक में मुझे काफी खली, वह है रोमन लिपि की मौजूदगी, जो मुझे लगा कि ज़रूरी नहीं थी। एक ऐसे समय में जब चेतन भगत यह दावा करते हों कि देवनागरी के दिन लद गए हैं और हिंदी को भी रोमन लिपि में लिखा जाना चाहिए, हिंदी उपन्यास में रोमन लिपि की मौजूदगी कहीं न कहीं आशंकित करती है कि चेतन भगत का दावा सच की शक्ल न इख्तियार कर ले। पुस्तक में अंग्रेजी के वाक्यों को देवनागरी में लिखकर इस दावे को एक अच्छा जवाब दिया जा सकता था।खैर इसके अलावा उपन्यास बेहद रोचक है, ज़रूर पढ़ें और आनंद लें, और थ्री ईडियट्स से तुलना न करें, 'बनारस टॉकीज़' का अपना अंदाज़ है, आगाज़ जैसा भी हो मगर अंजाम…….आखें खुद को झिडकती हैं, पगली …..  


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