Friday 24 November 2017

डार्क नाइट - कविता

स्पेनिश ईसाई संत 'जॉन ऑफ़ द क्रॉस' की प्रसिद्द कविता 'डार्क नाइट ऑफ़ द सोल' का हिंदी रूपांतरण किया है. मेरा नया उपन्यास 'डार्क नाइट' इसी विषय पर आधारित है -

इक रैन अमावस की आई, प्राणों में प्रेम की पीर बढ़ी,
चुपके से निकला मैं घर से, अहो कैसी थी वह धन्य घड़ी,
छूटा वह नीरव नीड़ मेरा.
सोपान अगोचर, छद्म-वेश, मैं भेष बदलकर निकला था,
बाहर घनघोर अँधेरा था, मन भीतर उजला-उजला था,
छूटा वह नीरव नीड़ मेरा.
निष्प्रभ निर्जन था मार्ग मेरा, कोई दीप न राह में जलता था,
इक ओज अलौकिक था मन में, जो पथ आलोकित करता था,
वो जोत हृदय की ऐसी थी, क्या धूप दुपहरी की होगी,
कहीं दूर एकाकी में सजनी, मेरी राह बुहार रही होगी,
उस भोर से प्यारी रजनी में, सजनी से आँखें चार हुईं,
प्रेमी-प्रियतम का भेद मिटा, बाहें बाहों का हार हुईं,
सजनी के सुमन से सीने में, मैं शीश धरा और आँख लगी,
फिर देवदार के वृक्षों से, शीतल सुरभित सी बयार उठी.
प्यारी के बालों से छनकर चंचल समीर का इक झोंका,
यूँ चीर के मेरा कंठ गया मैं अपनी सुध-बुध खो बैठा,
सजनी के मुख पर मुख धरकर, तज डाला मैंने अपने को,
दे सौंप कुमुद की कलियों को, बिसरा डाला हर सपने को.

No comments:

Post a Comment